जल संकट से उत्पन्न आस्था का बदलाव — बस्तर के चिड़पाल गाँव की कहानी

जल संकट से उत्पन्न आस्था का बदलाव — बस्तर के चिड़पाल गाँव की कहानी

11, 8, 2025

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छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले का चिड़पाल गाँव आज सिर्फ़ जल की समस्या का शिकार नहीं है बल्कि आस्था और विश्वास के मायने बदलने की स्थिति में खड़ा है। दूषित पानी, कम-पानी की किल्लत और अनेक बीमारियाँ इस कारण बनी हैं कि लगभग 30 प्रतिशत लोग गाँव में धर्म परिवर्तन कर चुके हैं। ये बदलाव सिर्फ़ धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक, स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता से जुड़ा मसला है।


गाँव की स्थिति: पानी की किल्लत और स्वास्थ्य संकट

  • चिड़पाल गाँव को कई वर्षों से भीषण जल संकट झेलना पड़ रहा है। गाँव में करीब दो दर्जन हैंडपंप हैं, लेकिन उनमें से केवल दो-तीन ही काम में हैं, और उनमें भी पानी बहुत कम, बूंद-बूंद आता है। गर्मियों के समय तो ये हैंडपम्प पूरी तरह सूख जाते हैं।

  • चार साल पहले “जल जीवन मिशन” के अंतर्गत भारी धनराशि खर्च कर गाँव में एक बड़ा पानी टॉकी बनाया गया और घर-घर पाइपलाइन से नल लगाये जाने की योजना बनी थी। लेकिन समस्या ये है कि टंकी को एक ख़रीसेब बोरवेल से नहीं जोड़ा गया, इसलिए नल अभी तक पानी देने में असमर्थ हैं।

  • पानी की कमी और दूषित पानी पीने की वजह से कई प्रकार की बीमारियाँ गाँव में बढ़ने लगी थीं। उदाहरण के लिए, एक सप्ताह पहले ही गाँव के कुछ पाड़ों में नौ लोगों को उल्टी-दस्त की शिकायत हुई थी।


आस्था और धर्म परिवर्तन की शुरुआत

  • पारंपरिक इलाज जैसे ओझा-गुनिया आदि मौजूद थे, लेकिन जब उनके प्रयोग से कोई सुधार नहीं हुआ, तो लोग दूसरे विकल्पों की तलाश में लग गए।

  • कुछ लोग चर्च की प्रार्थनाएँ करते और दावा करते कि प्रार्थना या धार्मिक उपचार के बाद स्वास्थ्य में सुधार हुआ है। इस “चमत्कारी सुधार” की ख़बर फैलने लगी और लोगों ने प्रार्थना उपचार को भरोसा देना शुरू किया।

  • एक उदाहरण है भूरसुराम कश्यप का — जिनका परिवार लगभग दस साल पहले चर्च से जुड़ा। उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी एवं सौतन दोनों दूषित पानी पीने के कारण बेहद बीमार पड़ी थीं, और पारंपरिक इलाज से कोई लाभ नहीं हुआ। लेकिन चर्च में धार्मिक उपचार के बाद उनकी स्थिति में सुधार हुआ, इस विश्वास ने धर्म परिवर्तन की मशाल जलाई।


परिवर्तन का पैमाना और संगठन

  • गाँव में अब चर्चों की संख्या बढ़ चुकी है — लगभग छः चर्च बताये जा रहे हैं, जहाँ करीब ५०० लोग नियमित रूप से प्रार्थना करते हैं।

  • ईसाई धर्म अपनाने वाले लगभग 70 परिवारों तक पहुंच चुका है। ये बड़े पैमाने पर परिवर्तन नहीं है, लेकिन गाँव की कुल जनसंख्या में 30 प्रतिशत का आंकड़ा दर्शाता है कि यह कोई मामूली परिवर्तन नहीं है।

  • बदलती धार्मिक धाराएँ एतिहासिक परंपराएँ, जनजातीय संस्कृति, गाँव की देवी-देवताओं से जुड़ी मान्यताएँ इत्यादि चीजों पर सवाल उठा रही हैं, क्योंकि लोग अब पारंपरिक पूजा-पाठ और देवी पर विश्वास से ज़्यादा उपचार और स्वास्थ्य लाभ की खोज कर रहे हैं।


सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू

  • बीमारी और बीमार बने रहने का लगातार अनुभव लोगों को हताश कर रहा है। जब व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ की उम्मीद करता है और लगातार बीमारी से लड़ता है, तो आत्म-विश्वास कमजोर पड़ता है और किसी भी ऐसी चीज़ की ओर झुकाव बढ़ता है जो तुरंत राहत दे सके।

  • धर्म परिवर्तन इस स्थिति में एक तरह की मानसिक राहत भी देता है, क्योंकि यह उम्मीद देता है कि “यहाँ भी समाधान हो सकता है” — और जब पारंपरिक तरीके फेल हों, तो आस्था-आधारित या धर्म आधारित सहायता को एक विकल्प के रूप में देखा जाता है।

  • गाँव की सामाजिक सहमति भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है: जब कुछ व्यक्ति चर्च जाते हैं और स्वास्थ्य में सुधार बताते हैं, तो उन पर लगातार विश्वास बढ़ता है और और लोग भी यही मार्ग अपनाane लगते हैं।


प्रशासनिक व रणनैतिक कमियाँ

  • जल जीवन मिशन के बावजूद टंकी को लीकेज या कनेक्शन के अभाव के कारण हालात जस के तस बने हुए हैं। सरकारी योजनाएँ कागज़ों में तो पूरी दिख रही हैं, लेकिन जमीन पर क्रियान्वयन कई जगहों पर अधूरा रहा है।

  • हैंडपम्प और नलकूप जैसी बुनियादी आपूर्ति की मरम्मत और रख-रखाव की जिम्मेदारी समय-समय पर विलंबित होती है।

  • स्वास्थ्य विभाग की निगरानी और रोग रोकथाम की प्रक्रिया पर्याप्त नहीं है। जब बीमारी फैलती है, तो उपचार और सुझावों के लिए दूर-दराज के अस्पतालों तक जाना पड़ता है।


सम्भावित समाधान और आगे की राह

  1. जल स्रोतों की सुरक्षा और क्रियाशीलता सुनिश्चित करना
    — हैंडपम्प, नलकूपों की मरम्मत तुरंत हो, पानी टॉकी की आपूर्ति सुनिश्चित हो, पाइपलाइन को काम करने लायक़ बनाया जाए।

  2. स्वास्थ्य सेवाएँ पहुँचायें
    — गाँव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की निगरानी हो, संक्रमण या जलजनित रोगों के बारे में नियमित जागरूकता कार्यक्रम हों, और समय पर चिकित्सकीय सहायता मिले।

  3. सुधार योजनाओं में पारदर्शिता
    — सरकारी योजनाओं का कार्यान्वयन कैसे हो रहा है इसकी जानकारी गाँव वालों को मिलनी चाहिए कि योजनाएं केवल नाम पर न हों बल्कि जमीन पर असर दिखाएँ।

  4. धार्मिक और सामाजिक संवाद
    — यदि लोग आस्था परिवर्तन कर रहे हैं, अच्छी तरह से चर्च, समाज और पारंपरिक नेताओं के बीच संवाद होना चाहिए कि यह परिवर्तन किसी दबाव या धोखे के कारण नहीं हो, बल्कि स्वतः की इच्छा से हो।


निष्कर्ष

चिड़पाल गाँव का यह उदाहरण है कि कैसे किसी बुनियादी आवश्यकता — पानी — की कमी ना सिर्फ़ जीवन को प्रभावित करती है, बल्कि साथ ही ढेरों मान्यताओं, विश्वासों और सामाजिक संरचनाओं को भी बदलने पर मजबूर करती है। जब पारंपरिक समाधान काम न करें और सामुदायिक या सरकारी सहायता पर्याप्त न हो, तो लोग ऐसे रास्ते अपनाते हैं जो उन्हें स्वास्थ्य, राहत और उम्मीद दे सकें।

यह गाँव सिर्फ़ एक कहानी नहीं है बल्कि एक संकेत है कि सरकारी नीतियों और योजनाओं में “मानव जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की सुनिश्चितता” कितनी महत्वपूर्ण है — ना कि सिर्फ योजनाएँ घोषित करना, बल्कि उन पर अमल होना ज़रूरी है।

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