19 साल पुराने दुष्कर्म मामले में आरोपी बरी, हाई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में सुनाया फैसला

19 साल पुराने दुष्कर्म मामले में आरोपी बरी, हाई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में सुनाया फैसला

11, 8, 2025

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बिलासपुर। छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने एक अहम फैसले में 19 साल पुराने दुष्कर्म मामले में आरोपी को बरी कर दिया है। न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष (prosecution) यह साबित करने में असफल रहा कि आरोपी पर लगे आरोप पर्याप्त साक्ष्यों से सिद्ध होते हैं। इस फैसले ने एक बार फिर लंबित मामलों, न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति और पीड़िता-आरोपी दोनों पर पड़ने वाले प्रभाव पर चर्चा को जन्म दिया है।


मामला कब और कैसे शुरू हुआ

यह मामला वर्ष 2004 का है। उस समय एक युवती ने थाने में शिकायत दर्ज कराई थी कि उसके साथ जबरन शारीरिक शोषण किया गया। शिकायत दर्ज होने के बाद पुलिस ने मामला दर्ज किया और आरोपी को गिरफ्तार कर न्यायालय के समक्ष पेश किया। निचली अदालत (trial court) ने अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों और गवाहों के आधार पर आरोपी को दोषी करार देते हुए सज़ा सुनाई थी।

आरोपी ने इस फैसले को चुनौती दी और मामले की अपील हाई कोर्ट में दाखिल कर दी। तब से यह केस हाई कोर्ट में लंबित था। आखिरकार लगभग दो दशकों बाद न्यायालय ने इस पर अंतिम फैसला सुनाया।


हाई कोर्ट का तर्क

हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि:

  • अभियोजन पक्ष जिन गवाहों पर निर्भर था, वे ट्रायल के दौरान अपने बयान से मुकर गए।

  • मेडिकल रिपोर्ट और अन्य भौतिक साक्ष्य इतने ठोस नहीं थे कि आरोपी को अपराधी सिद्ध कर सकें।

  • पीड़िता के बयान में भी समय के साथ कई विसंगतियां और विरोधाभास पाए गए, जिन पर अदालत ने गंभीर सवाल उठाए।

  • निचली अदालत ने जो सजा सुनाई थी, वह पर्याप्त ठोस साक्ष्यों पर आधारित नहीं थी।

इस आधार पर अदालत ने आरोपी को संदेह का लाभ (benefit of doubt) देते हुए बरी कर दिया।


आरोपी और परिजनों की प्रतिक्रिया

फैसला सुनाए जाने के बाद आरोपी और उसके परिजनों ने राहत की सांस ली। आरोपी का कहना था कि उसने अपराध नहीं किया था और वह झूठे आरोपों का शिकार हुआ। लंबे समय तक चले इस मुकदमे के कारण उसका जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ। सामाजिक प्रतिष्ठा पर धब्बा लगा, रोजगार के अवसर कम हुए और परिवार लगातार तनाव में रहा।

उसके परिजनों का कहना है कि लगभग 19 साल तक वे अदालतों के चक्कर लगाते रहे और अब जाकर न्याय मिला है।


पीड़िता की स्थिति

दूसरी ओर, पीड़िता और उसके परिवार ने निराशा जताई है। उनका कहना है कि न्याय में हुई देरी ने उनके हौसले को तोड़ा। वे यह मानते हैं कि अदालत के लिए पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत करना भले ही संभव न रहा हो, लेकिन घटना के समय उनके साथ अन्याय हुआ था।

यह पहलू भारतीय न्याय प्रणाली की चुनौतियों को सामने लाता है — जहाँ लंबे समय तक चले मुकदमे में गवाह बदल जाते हैं, सबूत कमजोर पड़ जाते हैं और आखिरकार आरोपी छूट जाता है।


न्यायिक विशेषज्ञों की राय

कानूनी जानकारों का कहना है कि अदालत ने जो फैसला दिया, वह कानून और उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर सही है। अदालत केवल उन्हीं साक्ष्यों पर भरोसा कर सकती है जो मज़बूत और निर्विवाद हों।

लेकिन विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि देरी से न्याय अक्सर न्याय से वंचित कर देता है। 19 साल का लंबा समय गवाहों की स्मृति, उनके बयान और सबूतों की विश्वसनीयता को प्रभावित करता है। यही वजह है कि दुष्कर्म जैसे गंभीर मामलों में फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट और त्वरित सुनवाई की ज़रूरत बार-बार सामने आती है।


सामाजिक प्रभाव

यह केस दिखाता है कि दुष्कर्म के मामलों में त्वरित और निष्पक्ष सुनवाई कितनी ज़रूरी है। पीड़िता और आरोपी दोनों ही लंबे समय तक मानसिक, सामाजिक और आर्थिक दबाव झेलते हैं।

  • आरोपी अगर निर्दोष हो, तो भी वह समाज में बदनाम होता है।

  • वहीं पीड़िता को न्याय मिलने की उम्मीद कम हो जाती है, जिससे महिलाओं में सुरक्षा की भावना कमजोर पड़ सकती है।

ऐसे मामलों से समाज में यह संदेश भी जाता है कि न्याय पाने के लिए संघर्ष बेहद लंबा और कठिन हो सकता है।


भविष्य के लिए सबक

  1. फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की ज़रूरत: दुष्कर्म और लैंगिक हिंसा से जुड़े मामलों को जल्दी निपटाने के लिए अलग से न्यायालयों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए।

  2. गवाह संरक्षण: गवाहों को सुरक्षा और सहयोग देना ज़रूरी है ताकि वे दबाव या समय के प्रभाव में बयान न बदलें।

  3. साक्ष्यों का संरक्षण: तकनीकी और वैज्ञानिक जांच को बेहतर बनाकर ऐसे मामलों में पुख्ता सबूत जुटाए जाएँ।

  4. मानसिक सहयोग: पीड़िताओं को लंबी सुनवाई के दौरान मानसिक परामर्श और सहायता दी जाए, ताकि वे टूट न जाएँ।


19 साल पुराने दुष्कर्म मामले में आया यह फैसला न्यायपालिका की सीमाओं और जिम्मेदारियों दोनों को उजागर करता है। अदालत ने साक्ष्यों की कमी के चलते आरोपी को बरी किया, लेकिन यह सवाल अब भी बना है कि क्या वास्तव में पीड़िता को न्याय मिल पाया?

यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति के बरी होने का नहीं, बल्कि हमारी न्याय व्यवस्था की गति और संरचना पर सवाल खड़े करता है। आने वाले समय में जरूरी है कि ऐसे संवेदनशील मामलों में तेजी और सटीकता दोनों सुनिश्चित हों, ताकि न तो निर्दोष को सज़ा मिले और न ही पीड़ित न्याय से वंचित रहे।

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