सम्मानपूर्वक अंत्येष्टि: एक संवैधानिक और मानवीय मांग

सम्मानपूर्वक अंत्येष्टि: एक संवैधानिक और मानवीय मांग

29, 9, 2025

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बिलासपुर में हाल ही में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस रमेश कुमार सिन्हा मुक्तिधाम पहुंचे। वहाँ उन्होंने ऐसा अव्यवस्थित दृश्य देखा कि उन्हें गहरा आक्रोश हुआ — शवों की अव्यवस्था, अंतिम संस्कार की अनदेखी, व्यवस्थाओं का अभाव। इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि मृतक का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार सिर्फ एक सामाजिक अपेक्षा नहीं, बल्कि मूलभूत अधिकार है।

घटना का मूल

मुक्तिधाम, जो अंतिम संस्कार का स्थल है, वहाँ जो व्यवस्था होनी चाहिए थी—स्वच्छता, समय पर निस्तारण, व्यवस्थापक निगरानी—वह कहीं दिखाई नहीं दी। कुछ शव खुले स्थान पर पड़े थे, कुछ की हालत बिखरी हुई थी। इस दृश्य ने न्यायालय की समझ को झकझो दिया। न्यायाधीश ने तुरंत राज्य सरकार, कलेक्टर और पंचायत विभाग को यह निर्देश दिया कि वे समस्या को तुरंत दुरुस्त करें, और ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित करें कि मृतक और उनके परिवार को मानव गरिमा के अनुरूप सेवा मिले।

न्यायालय का दृष्टिकोण

चीफ जस्टिस ने स्पष्ट किया कि जब कोई व्यक्ति जीवन से भाग ले लेता है, तब उसकी “मानव गरिमा” समाप्त नहीं होती। संविधान के तहत, जीवित व्यक्ति को जो अधिकार हैं — जैसे कि गोपनीयता, सम्मान, जीवन का अधिकार — उसी तर्ज पर मृतक को भी कुछ अधिकार मिलते हैं। अंतिम संस्कार उस व्यक्ति का आखिरी संस्कार है, और इसे उपेक्षित करना उस अधिकार का उल्लंघन है।

न्यायालय ने कहा कि यह केवल सामाजिक या धार्मिक मुद्दा नहीं है — यह एक न्यायिक और संवैधानिक सवाल है। सरकार और प्रशासन का काम सिर्फ जीवन की रक्षा करना नहीं है, बल्कि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति की गरिमा बनाए रखना है। इस दृष्टि से, उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अंतिम संस्कार केंद्रों पर पूर्व से योजनाबद्ध व्यवस्था हो—समय पर शवों का निस्तारण हो, स्वच्छता बनी हो, और किसी भी प्रकार की अव्यवस्था न हो।

व्यापक सन्दर्भ और चुनौतियाँ

यह मामला भारत में आदिवासी, अल्पसंख्यक और ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर देखे जाने वाले “मृत्यु के बाद की उपेक्षा” की समस्या को दर्शाता है। कई बार भारतीय गाँवों या नगरों में अंतिम संस्कार स्थल—क्रेमेटोरियम, मुनेंतधाम, कब्रिस्तान—की व्यवस्था ही अनुपस्थित होती है। या वह व्यवस्था इतनी जर्जर होती है कि मृतक की रख-रखाव, शव विस्थापन, अंतिम संस्कार की प्रक्रियाएँ बाधित हो जाती हैं।

इसके पीछे कई बुनियादी कारण हैं:

  • प्रशासनिक लापरवाही और अनुदूर निगरानी का अभाव

  • आर्थिक संसाधन एवं बजट की कमी

  • जमीन उपलब्ध न होना, योजना न होना या स्थानीय स्वीकृति न मिलना

  • सामाजिक भावना, धार्मिक तनाव और स्थानीय असहमति

  • आपदा, सामुदायिक तनाव, स्वास्थ्य संकट आदि कारणों से अचानक हत्या, आपदा या महामारी में शवों का संचार समस्या बन जाना

इस तरह की समस्या सिर्फ एक गाँव या नगर तक सीमित नहीं है। बड़े मामलों में—जैसा कि उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों या आदिवासी इलाकों में—शवों को दूर-स्थानों तक ले जाना, सुरक्षा की चिंता, विवादास्पद धर्म या जाति संबंधी मतभेद आदि मुद्दे जुड़ जाते हैं।

क्या कहा जाना चाहिए — निष्कर्ष और सुझाव

  1. समर्पित व्यवस्थाएं बनानी होंगी
    हर जिले, ब्लॉक स्तर पर अंतिम संस्कार केंद्र स्थापित करें — मुनीमधाम, कब्रिस्तान, क्रेमेटोरियम। ये स्थान भूमि, सुविधा, निगरानी और स्वीकृति से सुनिश्चित हों।

  2. नियमित निगरानी एवं पंजीकरण
    शवों की निस्तारण प्रक्रिया को रिकॉर्ड करें — कब, किस शव को, कौन-सी प्रक्रिया द्वारा — ताकि अपव्यवस्था न हो।

  3. स्वच्छता एवं स्वास्थ्य सुरक्षा
    शव सुरक्षित, समय पर और स्वच्छ प्रक्रिया से निस्तारित हो — इससे संक्रमण, रोग और सामाजिक असुविधा कम होगी।

  4. नागरिक जागरूकता और शिकायत तंत्र
    आम जनता को यह अधिकार समझाया जाए कि यदि अंतिम संस्कार स्थल अव्यवस्थित हो, तो वे शिकायत कर सकते हैं। हेल्पलाइन, नियंत्रण कक्ष आदि स्थापित हों।

  5. न्यायालय और प्रशासन की भूमिका
    ऐसे मामलों पर न्यायालय संवेदनशीलता दिखाए, और प्रशासन को निर्देश दे कि वे अव्यवस्था ठीक करें। व्यवस्था तैयार करने का समय तय करें।

  6. धार्मिक और सांस्कृतिक परस्पर सम्मान
    विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के अंतिम संस्कार रीति-रिवाज़ों का सम्मान करना ज़रूरी है। किसी धर्म विशेष को उसका अधिकार नकारना या बाधा डालना सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करता है।

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