तराचंद साहू और तीसरे मोर्चे की पहल: छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक मोड़

तराचंद साहू और तीसरे मोर्चे की पहल: छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक मोड़

29, 9, 2025

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छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक नाम जो अक्सर याद किया जाता है — तराचंद साहू। वे छत्तीसगढ़ (और पूर्व में मध्य प्रदेश) में भाजपा के पहले अध्यक्षों में से एक थे, लेकिन उनका राजनीतिक सफर सिर्फ एक पार्टी तक सीमित नहीं रहा। उनके जीवन में एक बड़ी घटना यह है कि उन्होंने तीसरे मोर्चे (थर्ड फ्रंट) की नींव रखने की कोशिश की थी, जिसका उद्देश्य राजनीतिक समीकरणों को बदलना था।

तराचंद साहू: परिचय और राजनीतिक पृष्ठभूमि

तराचंद साहू का जन्म 1947 में हुआ था और उनकी जड़ें दुर्ग जिले की रही।  उन्होंने स्थानीय राजनीति से शुरुआत की और बाद में भाजपा के अलग-अलग पदों पर काम किया।  वे लोकसभा सदस्य भी रहे — उन्होंने दुर्ग संसदीय सीट से कई बार चुनाव जीता। 

उनकी राजनीतिक छवि में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया, जब वे भाजपा से निष्कासन (expulsion) का सामना करना पड़ा। यह घटना 2009 के लोकसभा चुनावों के पहले की थी।  पार्टी के भीतर उनकी गतिविधियों को “एंटी-पार्टी” माना गया, और उस निर्णय के बाद उन्होंने अपनी एक अलग राह चुनने का प्रयत्न किया। 

तीसरा मोर्चा: विचार और तैयारी

भाजपा से बाहर होने के बाद, तराचंद साहू ने राजनीतिक ताकत जुटाने का सोचा। उनका विचार था — यदि कांग्रेस और भाजपा दोनों के खिलाफ एक समेकित विकल्प तैयार किया जाए तो राज्य की राजनीति में बदलाव लाया जा सकता है। इस दिशा में उन्होंने छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच (Chhattisgarh Swabhiman Manch, CSM) नामक संगठन शुरू किया, जिसका उद्देश्य था अलग राजनीतिक पहचान बनाना। 

उनकी योजना थी कि वे नेशनल कांग्रेस पार्टी (NCP), लॉजिस्टिक जेड पार्टी (LJP), समाजवादी पार्टी (SP), छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, गोड़वाना गणतंत्र पार्टी और अन्य क्षेत्रीय दलों को साथ लाएँ और एक तीसरा मोर्चा बनाएँ। इस मोर्चे का मकसद था भाजपा और कांग्रेस दोनों को चुनौती देना और राज्य स्तर पर सत्ता समीकरण बदलना। 

चुनौतियाँ और असफलता

तराचंद साहू की यह पहल जितनी महत्वाकांक्षी थी, उतनी ही जटिल और जोखिम भरी भी। कुछ चुनौतियाँ इस प्रकार रहीं:

  • दलगत स्वार्थ: अलग-अलग दलों के नेता अपने क्षेत्रीय हितों के प्रति वफादार थे, और साझा मंच में आने को सहज नहीं माना।

  • संसाधन अभाव: प्रचार, संगठन, कर्मियों और धन का अभाव इन नई पहलों को सुचारु रूप से आगे बढ़ने नहीं देता।

  • वैसे गठबंधन पीछे हटने की प्रवृत्ति: जब बड़े दलों से सत्ता या संसाधन मिलने की संभावना न हो, तो सहयोगी दल पीछे हट सकते हैं।

  • राजनीतिक दबाव: भाजपा और कांग्रेस दोनों ही अपने-अपने प्रभाव का उपयोग कर सकते हैं कि तीसरे मोर्चे को कमजोर किया जाए।

इन कारणों से, तीसरे मोर्चे की पूरी तरह से सफलता नहीं हो पायी। यह अधिकतर एक विचार और प्रतीक के रूप में ही रह गया।

राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव

तराचंद साहू की इस पहल का असर सिर्फ चुनाव परिणामों तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने यह संदेश दिया कि छत्तीसगढ़ की राजनीति में विकल्प की आवश्यकता है — न कि सिर्फ दो ही धुरियों का संघर्ष। उस समय में, उनकी इस सोच ने युवाओं, स्थानीय नेताओं और जनता को यह प्रेरणा दी कि राजनीति में बदलाव संभव है — यदि लोग संगठित हों और नया रास्ता चुनें।

इसके अलावा, उनका स्वाभिमान मंच (CSM) एक प्लेटफार्म बना जहाँ जाति, भाषा, क्षेत्रीय मुद्दे और स्वायत्तता को जोर दिया गया। इसने यह विचार जगाया कि राज्य की विशेषता, पहचान और हितों को ध्यान में रखते हुए भी राजनीति की जा सकती है।

निष्कर्ष

तराचंद साहू सिर्फ एक पार्टी नेता नहीं थे — वे एक विचारक और राजनीतिक द्रष्टा भी थे। भाजपा के भीतर की सीमाओं को समझने के बाद उन्होंने खुद एक नया रास्ता खोजने की कोशिश की — तीसरे मोर्चे की राह। यद्यपि उनका यह प्रयास पूरी तरह फलित नहीं हो सका, लेकिन उसने यह दिखाया कि राजनीतिक परिदृश्य को चुनौतियों और नवाचार से बदला जा सकता है।

उनकी कहानी यह भी बताती है कि राजनीति केवल सत्ता की होड़ नहीं है — यह विचारों, जनमत, संगठन और साहस का खेल है। तराचंद साहू की यह पहल हमें याद दिलाती है कि जब लोग सत्य, स्वाभिमान और बदलाव की चाह में जुटें, तो राजनीतिक इतिहास में एक नया अध्याय लिखा जा सकता है — चाहे वह शुरूआत संघर्षपूर्ण हो।

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